Sunday 22 November 2015

नपुंसक लिंग

नपुंसक लिंग                                      (कहानी)

यह तबकी बात है जब सिकन्दरपुर कस्बे का जल्पा चौक गुलाबकंद और गुलाब शकरी के लिए प्रसिद्ध होता था।ठीक तभी चांदनी चौक चूड़ियों और नाचने वालियों के लिए भी जाना जाता था। हुस्नपरस्त लोग जब नाजनीनों की अदाओं से घायल और नखरों से लहुलुहान होते थे, तो गुलाब शकरी का ठंडा शर्बत ही सहारा बनता था। शाम होते ही फिजा में काश्मीरी और खश जैसे इत्र की खुश्बू फैलने लगती तो साइकिलों की मरम्मत कर रहे रफीक मियाँ भी शायराना होने लगते।कहते हैं कि रफीक मियाँ सिकन्दरपुर में शायरी अर्ज करते थे तो लखनऊ में बैठे नवाब भी 'इरशाद' कहते थे जवाब में।लेकिन रफीक मियाँ ने आज तक किसी को सलाम नहीं किया बस दो लोगों को छोड़कर। एक हकीम साहब जिसकी वजह से आगे भी रफीक मियाँ का खानदान रौशन रहा । और दूसरे जगेसर मिसिर का, जो नदी किनारे किसी गांव के थे और  दूध बेचने आते थे शहर में। रोज एक लोटा दूध मंदिर की सीढ़ियों पर गिरा कर आवाज लगाते 'जल्पा मईया की-जय' । सारे घरों और दुकानों में दूध पहुंचाने के बाद भी एक लीटर दूध रफीक मियाँ के लिए बचा ही लेते थे ।जगेसर के पहुंचते ही रफीक अपनी गंदी रुमाल से स्टूल साफ करते और सुर्ती बनाने लगते।जगेसर सुर्ती को होठों में छुपा कर कहते- रफीक चचा! कसम जल्पा मईया की तुम्हारे इन गंदे हाथों की सुर्ती का मजा कहीं और नहीं मिलता।
रफीक मियाँ घूर कर देखने के बाद कहते - पंडी जी! लखनऊ के नवाब ख्वाजा जहाँ इसी हाथ की सुर्ती खाने के लिए चार सौ रुपये माहवार दे रहे थे। काम कुछ नहीं था बस हाजत-रफा के वक्त सुर्ती बनानी थी। लेकिन हमें तो इश्क इस चांदनी चौक से था और...।
पंडी जी कहते - और और क्या? कुछ इश्क शबनम से भी था। यही न?
रफीक मियाँ  बेबसी में हथौड़ा उठाकर दांत पीसते हुए कहते-तुम अगर बांभन नहीं होते न बेटा तो तुम्हारे सर पर यही बजा देते। चाहे सजा फांसी ही क्यों न होती।
इधर पंडी जी जोर जोर से हंसते और उधर रफीक मियाँ का दर्द शायरी बन के बह निकलता -
गिला इसका नहीं कि नाकाम रहे इश्क में।
अफसोस कि यारों ने भी नादां समझ लिया।।
बाप बेटे की उम्र के रफीक मियाँ और जगेसर मिसिर की दोस्ती पर शहर-ए-सिकन्दरपुर की तीखी नजर थी। लेकिन जगेसर मिसिर ठहरे दूध पीने वाले और पहलवानी करने वाले।
रोज की तरह ही जगेसर उस दिन भी परभू हलवाई के यहाँ दूध देकर मुड़ रहे थे तभी शबनम चुड़ीहारिन के डांटने की आवाज सुनाई दी। उन्होंने देखा कि सिर पर दुपट्टा रखे कोई चूड़ी पहनने वाली लड़की सुबक रही थी। उसकी गोरी कलाई से थोड़ा खून रिस रहा था और दो चूड़ियाँ कलाई में फंसी हुई थी। शबनम कह रही- एतना नखरा दिखाओगी तो कैसे चलेगा। थोड़ा कलाई ढीली छोड़ो।
वैसे तो शबनम से कभी पटी नहीं जगेसर की। लेकिन उस दिन जगेसर ने पूछ ही लिया- वो चूड़ियों वाली लड़की कौन थी मौसी?
शबनम ने चूड़ियों के गुच्छे सजाते हुए लापरवाही से कहा - देहात की होगी मुझे क्या करना पता पूछ के।
बात तो यहीं खत्म हो जानी थी। लेकिन अक्सर वो लड़की बिन्दी रंग-रोगन या सजने संवरने का सामान खरीदते दिख ही जाती थी।जगेसर देर तक उस लड़की को देखते रह जाते। उनके कसरती शरीर पर उसका नाजुक सरापा भारी पड़ने लगा। उनके दूध की सफेदी पर उसका गोरा रंग चढ़ने लगा।कभी कभी पंडी जी भी कांच की रंगीन चूड़ियाँ मुहब्बत में निशानी बना कर देने लगे। और जब तक पंडी जी उस लड़की के नागिन सी चाल का इशारा समझते तब तक पूरे शहर को खबर हो गई थी। यहां तक कि एक दिन रफीक मियाँ ने ही टोक दिया - ए पंडी जी! सुने हैं कि कोई देहात की लड़की पर नजरें इनायत कर रहे हो। ये इश्क और शायरी सबके बस की नहीं होती बेटा।तुम्हारी उमर जितनी है उतनी माशूकाओं के नाम मुझे अभी भी जबानी याद हैं।इसका हासिल कुछ है नहीं मियाँ।
जगेसर ने मुस्कुराते हुए कहा - रफीक मियाँ! सोचा है कि थोड़ा बदनाम हो कर भी देखा जाए।
रफीक मियाँ ने कहा - अरे बेवकूफ़ उसकी जात उसके खानदान के बरक्स कुछ मालूमात भी है कि यूं ही इश्क फरमा बैठे?
जगेसर ने लापरवाही से कहा - चचा। ये जात धरम ईमान सब पेट भरे होने पर काम आते हैं। वो मुझे पसंद है। यही क्या कम है? थोड़ी बहुत बात भी होने लगी है अब तो उससे। लेकिन चचा सरमाती बहुत है वो।
रफीक ने माथे पर हाथ मारकर कहा - अरे नादान उसे अशरफवा मुजरा वाला लाया है। उसके महफिल की जीनत बनने वाली इस लड़की का नाम शबा है और हकीकत में इसका नाम राजू है। समझे कुछ?
जगेसर ने आश्चर्य करते हुए कहा - चचा! किसी लड़की का नाम राजू पहली बार सुने हैं हम।
रफीक मियाँ ने हथौड़ा उठाते हुए कहा - अरे मुरुख। वो लड़की नहीं है। लड़का भी नहीं है।
जगेसर ने कहा - ई कैसे हो सकता है कि लड़की भी नहीं है और लड़का भी नहीं है?
रफीक ने समझाते हुए कहा - पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की तरह एक 'नपुंसक लिंग' भी होता है। अब समझ में आया?
जगेसर मिसिर पूरी बात सुनने के पहले ही बेहोश होकर गिर गए थे। उनके मुहब्बत की दुनिया बसने से पहले ही उजड़ चुकी थी। हकीम साहब ने दवा देकर कुछ दिन आराम करने को भी कहा था।
                सिकन्दरपुर शहर बड़ा नहीं है। लेकिन बड़ा है इसका इतिहास। सिकन्दर लोदी के हाथों इस शहर की नींव पड़ी।पुराने लोग बताते हैं कि एक बार प्लेग नाम की बीमारी आई थी इस शहर में।शहर की गलियां जब साफ होने लगीं चांदनी चौक और जल्पा चौक वीरान पड़ गया तो एक दिन अशरफवा ने शबा से कहा था कि - तुम यहाँ मरने के लिए क्यों रुकी हो। अपने गाँव क्यों नहीं चली जाती?
शबा ने रोते हुए कहा था कि - हमसे पंडी जी आने को कह गए थे हम बिना उन्हें देखे कहीं नहीं जाएंगे। भले ही मर क्यों न जाएं ।
शहर अब भी वही था लेकिन जहाँ इत्र की खुश्बू फैली रहती थी अब वहां लाशों के दुर्गंध से रहना मुश्किल हो रहा था।जिस घर में चक्कर काट कर गिरते हुए चूहे दिख जाते उस दिन कोई न कोई लाश जरुर निकलती थी। लोगों ने रोना धोना भी छोड़ दिया था। कौन रोए और कितनों के लिए रोए?
चैत की दोपहरी थी। तीन दिन से शबा का दरवाजा नहीं खुला था। दुर्गंध से नाक फटती थी। शबा की लचकती कमर के बचे हुए दीवानों की जब आखिरी आह भी थम गई तो रफीक मियाँ ने जगेसर मिसिर को भी इत्तला करना जरुरी समझा।जगेसर को बिस्तर पर पड़े यह पच्चीसवां दिन था।उठ कर खड़े होने की ताब भी न थी। लेकिन जगेसर उठे। उठे ही नहीं शबा का जल प्रवाह करने का फैसला भी सुनाया। रफीक मियाँ ने समझाया - पंडी जी यह अनर्थ है। म्युनिसिपैलिटी वालों की गाड़ियां लाश को ले जाएंगी। तुम अपना ईमान कांहे खराब करते हो?
जगेसर ने कहा - नहीं चचा। मैं नपुंसक लिंग नहीं हूँ।बाकी लोग भले ही नपुंसक लिंग बन के रहे। कुछ भी हो उसने मुझसे मुहब्बत तो की थी....।
हां लोग यह भी बताते हैं कि जगेसर मिसिर ने शबा के साथ ही जल समाधि ले ली थी।
© असित कुमार मिश्र 
     बलिया

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