Friday 4 December 2015

सब फोटो स्टेट नहीं होता

सब फोटो स्टेट नहीं होता....                           (कहानी)

सिकन्दरपुर कस्बे में डाकबंगला ऐसी जगह है जहाँ हल्दी नमक से लेकर सूई दवाई तक, ताजी सब्जियों से लेकर चाय समोसे तक, फोटो स्टेट से लेकर चूड़ियों तक की दुकानें हैं। सबकी अलग अलग दुकानें, लेकिन सबकी एक ही दुनिया।
एक पैर कब्र में लटकाए और दूसरे पैर से सब्जी की दुकान चलाने वाले लल्लू काका को सबसे ज्यादा परेशान करते हैं बिजेन्दर ठाकुर। तो पान बेचने वाले गनेस जी की मित्रता है संजय चाय वाले से।इधर फोटो खींचने वाले गुड्डू भैया को सनीचर नाम दिया है अरबिन्द डाग्डर ने। वहीं एक नंबर का ही सामान बेचने का दावा करने वाले झुट्ठामल भी हैं।परधानी कोटे से बने चबूतरे पर कुछ 'जोकर' नहले को दहले से, और चिड़ी के इक्के को लाल पान के सत्ते से काटते भी मिल जाएंगे। ये छोटे मोटे लोग हैं जिनकी कहानियां बड़े लोग नहीं लिखते। डाकबंगला कहे जाने वाले इस छोटी सी जगह में कोई एक आदमी घट जाए या बढ़ जाए तो कहानी बन ही जाती है।
                यह भी किसी के अचानक बढ़ जाने और घट जाने की कहानी ही है। रोज की तरह ही उस दिन भी कोचिंग से लौटते वक्त मैं डाकबंगले पर रुका था। लल्लू काका अपने सब्जियों की दुकान खोल ही रहे थे कि बिजेन्दर ठाकुर ने उनको देखकर गाना गाया था - 'चलल करऽ ए बबुनी ओढ़नी संभार केऽ',.... अब लल्लू काका कम से कम दो घंटे गाली देंगे। कुछ कहिए मूड तो फ्रेश हो ही जाता है इनकी गालियों से। लेकिन उस दिन बात थोड़ी ज्यादा बढ़ गई थी लल्लू काका सीधे मेरे पास आए और कहा - आज हम बिजेन्दरा पर एफ आई आर कराएंगे कि हमसे छेड़छाड़ करता है, गाली देता है, और जान से मारने की धमकी देता है।आप हमरा अप्लीकेसन लिख दीजिए।
मैंने कहा कि ए काका सीधे बलात्कार का मुकदमा कराइए। फिर बहरा नहीं आ पाएँगे सात साल। बस चार गवाह तैयार कीजिए।
बात जब गवाही की आई तो अरबिन्द डाग्डर संजय और गनेस जी सौ सौ रुपए पर तैयार हो गए। मैं सादा कागज लेने के लिए लक्की पीसीओ में गया। और पीसीओ से बाहर निकल ही रहा था कि चबूतरे पर बैठकर दुकान पर लिखे फोटो स्टेट के बोर्ड को ध्यान से देख रही एक बुढ़िया अचानक मेरे तरफ आई, और मेरा काॅलर पकड़ कर खींचने लगी। मेरे हाथ से कागज गिर गया।बुढ़िया को जब तक लोग पकड़ कर हटाते उसने मुझे खरोंच दिया था। और मेरे शर्ट के दो तीन बटन टूट चुके थे।बुढ़िया चिल्ला रही थी - सब्ब फोटो स्टेट है! सब्ब फोटो स्टेट है!!
यह पहला परिचय था मेरा बुढ़िया से।संजय ने बताया कि यह बुढ़िया पगली है। न जाने कहां से आई है दो तीन दिन से यहीं चबूतरे पर सो रही है।शायद थोड़ा-बहुत बहुत पढ़ना जानती है। कोई बात दिन भर दोहराती रहती है। स्कूल के बच्चे मध्याह्न भोजन में से इसे दे जाते हैं वही खाकर रहती है।कोई सामान भी नहीं है इसके पास। किसी से कुछ बोलती भी नहीं।आज पता नहीं कैसे आप पर इसने हमला कर दिया। मैंने भीड़ में सहमी सिकुडी बुढ़िया को बैठे देखा। कपड़े अस्त व्यस्त।कई दिनों से न नहाने से गंदी हो गई थी। लेकिन अस्फुट स्वर में शायद वही बात दुहरा रही थी कि सब फोटो स्टेट है। मैंने लोगों से भीड़ खत्म करने का आग्रह किया और खुद भी घर आ गया।
             मैं इस घटना को न चाहते हुए भी भूल गया था।इसे याद करने की कोई वजह भी तो नहीं थी। हां डाकबंगले पर रुकता नहीं था अब।तीन चार दिनों के बाद मैंने चबूतरे के नीचे बुढ़िया को फिर बैठे देखा। उससे नजरें मिलीं मेरी आंखों में गुस्सा था उसकी आंखों में कुछ नहीं। जैसे जानती ही न हो मुझे। मैंने तुरंत उसकी तरफ से मुंह फेरना चाहा तभी खाकी रंग की स्कूल ड्रेस में आए दो तीन स्कूली बच्चों ने अपनी थाली में लाया हुआ कढ़ी भात उसकी थाली में लापरवाही से डाल दिया और बुढ़िया भी शायद उसी इन्तजार में थी बिल्कुल ही टूट पड़ी खाने पर।
          मैंने अगल बगल देखा सब अपने काम में व्यस्त थे।किसी पागल के बारे में सोचने की फुरसत या जरूरत भी तो नहीं होती। मैंने उन बच्चों को थोड़ा आगे जाकर रोका और पूछा कि बुढ़िया तुम लोगों से खाना मांगती है?
बच्चों ने बताया कि नहीं। स्कूल का बचा खाना हम लोग एक दिन घर ले जा रहे थे तो बुढ़िया को रास्ते में बैठे देखा। और थोड़ा सा इसे भी दे दिया। तबसे आदत हो गई है। हम रोज उसे भी अपने भोजन में से उसे दे आते हैं।
मैंने हंस कर पूछा कि कब तक बुढ़िया को खिलाओगे ऐसे?
बड़े लड़के ने छोटे वाले की तरफ इशारा करके कहा - हम त इसी साल पांच पास करके निकल जाएंगे बाकिर ई तीन में है ईहे लाया करेगा।
मैंने छोटे वाले से पूछा कि तुम स्कूल से निकल जाओगे तब कौन खाना लाएगा जी?
छोटा लड़का शायद हिंदी नहीं जानता। उसने कहा कि- हमार छोटकी बहिन एक में बिया। तब ऊहे ले के आई।
मैं स्तब्ध रह गया।चार पांच के ये छोटे-छोटे बच्चे इतने संवेदनशील हैं कि लगभग दस दिनों से बुढ़िया को अपने दम पर जिन्दा रखे हुए हैं। और हम सभ्य समाज वाले लोगों के पास इतना भी समय नहीं कि अपने बने बनाए खोल से बाहर निकल सकें।हमारे आगे पीछे कौन जीता है कौन मरता है हमें क्या मतलब? सच ही तो कहा था उस दिन बुढ़िया ने कि सब फोटो स्टेट है।बहुत झूठी है ये दुनिया....।तभी मेरे मन में एक नया सवाल आया कि रविवार को जब स्कूल बंद रहता है तब कौन लड़का खाना लाता होगा? उस दिन तो बुढ़िया भूखी ही रहती होगी न! मैं फिर से बुढ़िया को देखा अब वो बची हुई कढ़ी पी रही थी। मेरे अन्दर कुछ पिघला। और पानी भरी आंखों से मैंने देखा। उन स्कूली बच्चों की पीठ अब भी दिख रही थी।
मैंने पीसीओ वाले गुड्डू भैया ऊर्फ सनीचर महाराज से कहा कि अपने बगल में यह खंडहर जैसा कमरा बुढ़िया को रहने के लिए दे दीजिए।
उनके साफ साफ मना करने पर मैंने धर्म-कर्म, पाप-पुण्य का सहारा लेकर कहा कि दो महीने बाद अगर ठंड से बुढ़िया यहीं मर गई तो अगला भूकम्प यहीं आएगा। आप अपनी यह 'हवेली' अपने पास रखे रखिए।
सनीचर महाराज तैयार हो गए। फिर मैंने संजय चाय वाले से कहा कि इस बुढ़िया को रविवार के दिन खाना खिलाने से तुम्हारी दुकान खूब चलेगी।फिर उसके लिए एक पुरानी दरी और कंबल की भी व्यवस्था की गई।
          लगाव साहचर्य जनित भी होता है।साथ रहते रहते कुत्ते बिल्लियों गाय भैसों से भी लगाव हो जाता है तो यह आखिर मानुस ही थी ।महीना बीतते बीतते बुढ़िया के साथ भी यही हुआ। वह अब डाकबंगले का ही एक हिस्सा हो गई थी। सनीचर महाराज अब पाप पुण्य के दायरे से ऊपर उठ चुके थे। दुकान खोल कर जब झाड़ू उठाते तो बुढ़िया का कमरा भी साफ कर आते। संजय रविवार को खाना तो खिलाते ही थे, रोज सुबह की पहली चाय भी बुढ़िया को दे आते। लल्लू काका के सूखे होठों पर हंसी आ जाती थी जब बिजेन्दर बुढ़िया का सहारा लेकर छेड़छाड़ करते थे। शायद काका के नीरस जीवन में भी सरसता आ रही थी। हम सबकी जिन्दगी में शामिल थी अब बुढ़िया। गश्ती टीम के सिपाही मुकेश और धीरज यादव रात को एक नजर बुढ़िया को देखकर ही आगे बढ़ते थे। मुझे भी संजय की दुकान पर चाय का गिलास होंठ से लगाते ही बुढ़िया की याद आती और मैं पूछ बैठता कि बुढ़िया ने चाय पी?
संजय मुस्कुरा के कहते हां माट्साहब आधा घंटे पहले ही रजुवा चाय ले गया था।मैं देख रहा था कि बुढ़िया में भी बदलाव आ रहा था धीरे-धीरे। अब वो नहाने भी लगी थी। और चिल्लाती भी नहीं थी।हां इसी बीच अरबिन्द डाग्डर को दांत काटने का प्रयास किया था।
             दिसम्बर का महीना चल रहा है। ठंड भी पड़ने लगी है अब।तीन तारीख को बिहार में "भोजपुरिया स्वाभिमान सम्मेलन" होता है। मैं कल वहीं से आ रहा था।नदी पार करते ही टिटिहरी के बोलने की आवाज सुनाई दी थी । ये हरामजादी जब भी बोलती है तो कुछ ना कुछ अशुभ जरुर होता है। पहले ही तय कर लिया था कि डाकबंगले पर नहीं रुकना है। लेकिन चबूतरे के आसपास इक्ट्ठा हुई भीड़ से समझ गया कि बुढ़िया आज फिर किसी से उलझ गई होगी।मैंने तय कर लिया कि आज बुढ़िया को डाटूंगा। भीड़ हटाकर जब बुढ़िया के पास पहुंचा तो डांटने की जरुरत खत्म हो चुकी थी। उसे लोगों ने चबूतरे पर ही लिटाया था।अरबिन्द डाग्डर ने बुढ़िया की लाश देखकर बताया कि हार्ट अटैक से मरी है। धीरज सिपाही कह रहे थे कि भोर में चार बजे मैं गश्त से लौट रहा था। रोज की तरह बुढ़िया को आवाज लगाई। फिर कमरे में जाकर देखा तो बुढ़िया मरी पड़ी थी...।
बहुत रोकने पर भी आंसुओं की कुछ बूंदों ने मेरा कहना नहीं माना। बुढ़िया मेरी कोई नहीं थी। मेरी ही क्या, यहां जुटी भीड़ में से किसी की भी कुछ नहीं थी।मैंने संजय चायवाले की रोती हुई आँखें देखीं। अरबिन्द डाग्डर को इस उम्मीद से आला सटाते देखा कि शायद उसके बेजान शरीर में सांसों का एक भी कतरा बचा हो।रोते हुए बिजेन्दर ठाकुर को चुप कराते हुए लल्लू काका को देखा। और गुड्डू भैया ऊर्फ सनीचर महाराज को भी आंसू बहाते देखा।बुढ़िया का जल प्रवाह करने के लिए लोग जुटते जा रहे हैं। सब बुढ़िया के इस आखिरी यात्रा के सहभागी बनना चाहते हैं... और मैं.... मैं.... मन तो कर रहा है कि बुढ़िया को झकझोर कर उठाऊं और कहूँ कि देख बुढ़िया इस भीड़ को... सबके रोते हुए चेहरों को... और बंद पड़ी डाकबंगले की इन सभी दुकानों को।देख बुढ़िया देख! सब फोटो स्टेट ही नहीं होता। सब फोटो स्टेट नहीं होता...

असित कुमार मिश्र
बलिया

            
            

Sunday 22 November 2015

नपुंसक लिंग

नपुंसक लिंग                                      (कहानी)

यह तबकी बात है जब सिकन्दरपुर कस्बे का जल्पा चौक गुलाबकंद और गुलाब शकरी के लिए प्रसिद्ध होता था।ठीक तभी चांदनी चौक चूड़ियों और नाचने वालियों के लिए भी जाना जाता था। हुस्नपरस्त लोग जब नाजनीनों की अदाओं से घायल और नखरों से लहुलुहान होते थे, तो गुलाब शकरी का ठंडा शर्बत ही सहारा बनता था। शाम होते ही फिजा में काश्मीरी और खश जैसे इत्र की खुश्बू फैलने लगती तो साइकिलों की मरम्मत कर रहे रफीक मियाँ भी शायराना होने लगते।कहते हैं कि रफीक मियाँ सिकन्दरपुर में शायरी अर्ज करते थे तो लखनऊ में बैठे नवाब भी 'इरशाद' कहते थे जवाब में।लेकिन रफीक मियाँ ने आज तक किसी को सलाम नहीं किया बस दो लोगों को छोड़कर। एक हकीम साहब जिसकी वजह से आगे भी रफीक मियाँ का खानदान रौशन रहा । और दूसरे जगेसर मिसिर का, जो नदी किनारे किसी गांव के थे और  दूध बेचने आते थे शहर में। रोज एक लोटा दूध मंदिर की सीढ़ियों पर गिरा कर आवाज लगाते 'जल्पा मईया की-जय' । सारे घरों और दुकानों में दूध पहुंचाने के बाद भी एक लीटर दूध रफीक मियाँ के लिए बचा ही लेते थे ।जगेसर के पहुंचते ही रफीक अपनी गंदी रुमाल से स्टूल साफ करते और सुर्ती बनाने लगते।जगेसर सुर्ती को होठों में छुपा कर कहते- रफीक चचा! कसम जल्पा मईया की तुम्हारे इन गंदे हाथों की सुर्ती का मजा कहीं और नहीं मिलता।
रफीक मियाँ घूर कर देखने के बाद कहते - पंडी जी! लखनऊ के नवाब ख्वाजा जहाँ इसी हाथ की सुर्ती खाने के लिए चार सौ रुपये माहवार दे रहे थे। काम कुछ नहीं था बस हाजत-रफा के वक्त सुर्ती बनानी थी। लेकिन हमें तो इश्क इस चांदनी चौक से था और...।
पंडी जी कहते - और और क्या? कुछ इश्क शबनम से भी था। यही न?
रफीक मियाँ  बेबसी में हथौड़ा उठाकर दांत पीसते हुए कहते-तुम अगर बांभन नहीं होते न बेटा तो तुम्हारे सर पर यही बजा देते। चाहे सजा फांसी ही क्यों न होती।
इधर पंडी जी जोर जोर से हंसते और उधर रफीक मियाँ का दर्द शायरी बन के बह निकलता -
गिला इसका नहीं कि नाकाम रहे इश्क में।
अफसोस कि यारों ने भी नादां समझ लिया।।
बाप बेटे की उम्र के रफीक मियाँ और जगेसर मिसिर की दोस्ती पर शहर-ए-सिकन्दरपुर की तीखी नजर थी। लेकिन जगेसर मिसिर ठहरे दूध पीने वाले और पहलवानी करने वाले।
रोज की तरह ही जगेसर उस दिन भी परभू हलवाई के यहाँ दूध देकर मुड़ रहे थे तभी शबनम चुड़ीहारिन के डांटने की आवाज सुनाई दी। उन्होंने देखा कि सिर पर दुपट्टा रखे कोई चूड़ी पहनने वाली लड़की सुबक रही थी। उसकी गोरी कलाई से थोड़ा खून रिस रहा था और दो चूड़ियाँ कलाई में फंसी हुई थी। शबनम कह रही- एतना नखरा दिखाओगी तो कैसे चलेगा। थोड़ा कलाई ढीली छोड़ो।
वैसे तो शबनम से कभी पटी नहीं जगेसर की। लेकिन उस दिन जगेसर ने पूछ ही लिया- वो चूड़ियों वाली लड़की कौन थी मौसी?
शबनम ने चूड़ियों के गुच्छे सजाते हुए लापरवाही से कहा - देहात की होगी मुझे क्या करना पता पूछ के।
बात तो यहीं खत्म हो जानी थी। लेकिन अक्सर वो लड़की बिन्दी रंग-रोगन या सजने संवरने का सामान खरीदते दिख ही जाती थी।जगेसर देर तक उस लड़की को देखते रह जाते। उनके कसरती शरीर पर उसका नाजुक सरापा भारी पड़ने लगा। उनके दूध की सफेदी पर उसका गोरा रंग चढ़ने लगा।कभी कभी पंडी जी भी कांच की रंगीन चूड़ियाँ मुहब्बत में निशानी बना कर देने लगे। और जब तक पंडी जी उस लड़की के नागिन सी चाल का इशारा समझते तब तक पूरे शहर को खबर हो गई थी। यहां तक कि एक दिन रफीक मियाँ ने ही टोक दिया - ए पंडी जी! सुने हैं कि कोई देहात की लड़की पर नजरें इनायत कर रहे हो। ये इश्क और शायरी सबके बस की नहीं होती बेटा।तुम्हारी उमर जितनी है उतनी माशूकाओं के नाम मुझे अभी भी जबानी याद हैं।इसका हासिल कुछ है नहीं मियाँ।
जगेसर ने मुस्कुराते हुए कहा - रफीक मियाँ! सोचा है कि थोड़ा बदनाम हो कर भी देखा जाए।
रफीक मियाँ ने कहा - अरे बेवकूफ़ उसकी जात उसके खानदान के बरक्स कुछ मालूमात भी है कि यूं ही इश्क फरमा बैठे?
जगेसर ने लापरवाही से कहा - चचा। ये जात धरम ईमान सब पेट भरे होने पर काम आते हैं। वो मुझे पसंद है। यही क्या कम है? थोड़ी बहुत बात भी होने लगी है अब तो उससे। लेकिन चचा सरमाती बहुत है वो।
रफीक ने माथे पर हाथ मारकर कहा - अरे नादान उसे अशरफवा मुजरा वाला लाया है। उसके महफिल की जीनत बनने वाली इस लड़की का नाम शबा है और हकीकत में इसका नाम राजू है। समझे कुछ?
जगेसर ने आश्चर्य करते हुए कहा - चचा! किसी लड़की का नाम राजू पहली बार सुने हैं हम।
रफीक मियाँ ने हथौड़ा उठाते हुए कहा - अरे मुरुख। वो लड़की नहीं है। लड़का भी नहीं है।
जगेसर ने कहा - ई कैसे हो सकता है कि लड़की भी नहीं है और लड़का भी नहीं है?
रफीक ने समझाते हुए कहा - पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की तरह एक 'नपुंसक लिंग' भी होता है। अब समझ में आया?
जगेसर मिसिर पूरी बात सुनने के पहले ही बेहोश होकर गिर गए थे। उनके मुहब्बत की दुनिया बसने से पहले ही उजड़ चुकी थी। हकीम साहब ने दवा देकर कुछ दिन आराम करने को भी कहा था।
                सिकन्दरपुर शहर बड़ा नहीं है। लेकिन बड़ा है इसका इतिहास। सिकन्दर लोदी के हाथों इस शहर की नींव पड़ी।पुराने लोग बताते हैं कि एक बार प्लेग नाम की बीमारी आई थी इस शहर में।शहर की गलियां जब साफ होने लगीं चांदनी चौक और जल्पा चौक वीरान पड़ गया तो एक दिन अशरफवा ने शबा से कहा था कि - तुम यहाँ मरने के लिए क्यों रुकी हो। अपने गाँव क्यों नहीं चली जाती?
शबा ने रोते हुए कहा था कि - हमसे पंडी जी आने को कह गए थे हम बिना उन्हें देखे कहीं नहीं जाएंगे। भले ही मर क्यों न जाएं ।
शहर अब भी वही था लेकिन जहाँ इत्र की खुश्बू फैली रहती थी अब वहां लाशों के दुर्गंध से रहना मुश्किल हो रहा था।जिस घर में चक्कर काट कर गिरते हुए चूहे दिख जाते उस दिन कोई न कोई लाश जरुर निकलती थी। लोगों ने रोना धोना भी छोड़ दिया था। कौन रोए और कितनों के लिए रोए?
चैत की दोपहरी थी। तीन दिन से शबा का दरवाजा नहीं खुला था। दुर्गंध से नाक फटती थी। शबा की लचकती कमर के बचे हुए दीवानों की जब आखिरी आह भी थम गई तो रफीक मियाँ ने जगेसर मिसिर को भी इत्तला करना जरुरी समझा।जगेसर को बिस्तर पर पड़े यह पच्चीसवां दिन था।उठ कर खड़े होने की ताब भी न थी। लेकिन जगेसर उठे। उठे ही नहीं शबा का जल प्रवाह करने का फैसला भी सुनाया। रफीक मियाँ ने समझाया - पंडी जी यह अनर्थ है। म्युनिसिपैलिटी वालों की गाड़ियां लाश को ले जाएंगी। तुम अपना ईमान कांहे खराब करते हो?
जगेसर ने कहा - नहीं चचा। मैं नपुंसक लिंग नहीं हूँ।बाकी लोग भले ही नपुंसक लिंग बन के रहे। कुछ भी हो उसने मुझसे मुहब्बत तो की थी....।
हां लोग यह भी बताते हैं कि जगेसर मिसिर ने शबा के साथ ही जल समाधि ले ली थी।
© असित कुमार मिश्र 
     बलिया

Monday 10 August 2015

एक राजा था एक रानी थी......( कहानी)

चक्रवर्ती सम्राट पृथ्वीराज चौहान की स्मृति में होने वाले इस राज्य उत्सव का तीसरा दिन चित्रकला प्रदर्शनी के लिये जाना जाता है। सभागार की दीवारों पर एक से बढ़कर एक चित्र लगाए गए हैं। इन चित्रों में कहीं शिकार करता हुआ सिंह है तो कहीं कुंलाचे मारता हुआ हिरण समूह।कहीं पलाशवन में प्रिय की स्मृति हृदय में लिये किसी विरहिणी का चित्र है तो कहीं चार बांस चौबीस गज ऊपर बैठा सुल्तान है और नीचे से शब्दभेदी बाण चलाते पृथ्वीराज चौहान। विभिन्न राज्यों के राजकुमार राजागण आमात्य और साधारण जन इन चित्रों को देखकर चित्रकार की प्रशंसा करते नहीं थकते। महोबा का राजकुमार विशालदेव सिंह चौहान इन चित्रों पर उचटती हुई दृष्टि डालकर आगे बढ़ जाता है। इन चित्रों में उसे आनंद नहीं मिलता। वह अतिथियों के लिये बनाए गए विश्रामगृह में आकर बैठ जाता है। तभी सभागार का मुख्य रक्षक आकर बताता है कि -राजकुमारी प्रीति सिंह चौहान के चित्र सभागार में प्रदर्शनी हेतु रख दिए गए हैं। राजकुमार -प्रहरी! अब इच्छा नहीं जाओ। प्रहरी-राजकुमार! बाद में इतनी भीड़ हो जाएगी कि आप देख न पाएंगे। पूरा सभागार उनके चित्रों के सम्मुख ही होगा। राजकुमार-क्या इतने अच्छे चित्र हैं उनके? किस शैली में हैं? प्रहरी-जी। अद्वितीय कला है उनके पास। बूँदी शैली में सिद्धहस्त हैं वो। राजकुमार उत्कंठा से उठ खड़ा हुआ, प्रहरी ने पादुका सम्मुख रखी। राजकुमार विस्फारित नेत्रों से चित्रों को देख रहा है। आह!नृत्य करते हुए मयूर, वर्षा की ऋतु, उमड़ती हुई घटाएँ, और प्रसन्नता से देखती हुई एक बालिका....। राजकुमार जैसे भींगने लगा। एक क्षण को उस चित्र के सम्मोहन में फंस गया। हृदय ने कहा-इस काल्पनिक चित्र को बनाने वाली राजकुमारी वास्तव में कैसी होगी?            मलयपुरम के इस वार्षिक आयोजन का चौथा दिन धनुर्विद्या के लिये विख्यात है। जलभेदी और शब्दभेदी बाण कला में विजयी प्रतिभागियों को राजा बलवंत सिंह चौहान स्वयं पुरस्कृत करते हैं। दिन का दूसरा पहर आते आते सैकड़ों प्रतिभागी प्रतियोगिता से बाहर हो गए। जल भेदी बाण प्रतियोगिता में तालाब के स्वच्छ जल में तलहटी में स्थित कृत्रिम मछलियों पर निशाना लगाया जाता है। और शब्दभेदी बाण प्रतियोगिता में आँखों पर पट्टी बाँधकर मात्र ध्वनि सुनकर कबूतरों पर निशाना लगाना होता है।मात्र पाँच राजकुमारों ने ही जलभेदी प्रतियोगिता उत्तीर्ण की है।अब शब्दभेदी प्रतियोगिता के लिये पाँचों राजकुमारों की आँखों पर पट्टी बाँध दी गई है। पूरी दर्शक दीर्घा में सन्नाटा फैला है। इस प्रतियोगिता में शिशुओं का प्रवेश वर्जित है। राजा का संकेत मिलते ही एक सैनिक ने कबूतर उड़ाया।उधर कबूतर गुटुर-गूं करते उड़ा इधर चार तीर कमानों से एक साथ निकले और कबूतर के बिल्कुल आसपास से निकल गए। कुछ क्षण बाद ही कमान से निकला पाँचवा तीर कबूतर को लेकर नीचे गिरा। सभा में एक शोर उठा-राजकुमार विशालदेव सिंह की -जय!!               श्रावण मास का आदित्यवार। राजमंदिर के घंटों की ध्वनि से राजकुमारी प्रीति की नींद टूटी तो देखा कि सूर्योदय कब का हो गया है। उसने सखियों को आवाज दी और जल्दी से वस्त्रादि तैयार करने का आदेश दिया। राजमहल के अन्त:पुर में स्थित सरोवर की सीढ़ियाँ उतरते हुए चंपा ने हास्य किया-राजकुमारी! आज स्वप्न में कौन सा राजकुमार आया था जो नींद नहीं टूट रही थी? राजकुमारी ने शरमाते हुए कहा-धत्त। तू भी न!...और वातावरण एक साथ कई लड़कियों की सुमधुर हंसी से गूंज उठा। सरोवर के चारों ओर फूलों की क्यारियाँ लगी हुई हैं। कुछ वृक्ष भी कतार से खड़े हैं मानो सरोवर के पहरेदार हों। ऊपरी वस्त्र उतारते हुए राजकुमारी को पीछे पेड़ की घनी पत्तियों के बीच कुछ सरसराहट सुनाई दी। राजकुमारी ने बैठे बैठे ही कपड़ों के बीच में रखा चाकू निकाल लिया। तभी पत्तियों में फिर हरकत हुई और इधर बिजली की तेजी से राजकुमारी ने चाकू चला दिया। पत्तियों की सघनता से अनियंत्रित होकर कोई नीचे गिर पड़ा। राजकुमारी ने कमर से कटार निकाल कर उसके सीने पर रखते हुए कहा-धृष्ट अजनबी! क्या तुम्हें पता नहीं कि राजभवन के अन्त:पुर में आमात्य और ब्राह्मण के अतिरिक्त कोई प्रवेश नहीं कर सकता? अजनबी ने कराहते हुए कहा-राजकुमारी! दीवारों पर बने इन चित्रों को देखते देखते मैं कब इधर आ गया; पता ही न चला। राजकुमारी ने कहा-इन चित्रों से तुम्हें क्या मतलब? तुम हो कौन? तभी चंपा बोल उठी-राजकुमारी! वस्त्रों से तो यह चोर नहीं लगता। पर प्रहरियों को दे देना ही उचित होगा। कुछ क्षण बाद चार प्रहरी जंजीरों में बाँधकर उस अजनबी को लेकर चले गए। और इधर राजकुमारी तथा सखियाँ स्नान से निवृत्त हुईं।             महाराज बलवंत सिंह चौहान ने जैसे ही राज्य की गोपनीय बैठक भंग की,प्रतिहारी ने आकर कहा-महाराज की जय हो!मलयपुरम की राजकुमारी प्रीति सिंह चौहान अभी आपसे मिलने को इच्छुक हैं। महाराज ने कहा-ठीक है हम आ रहे हैं। महाराज के आने पर राजकुमारी ने भावावेश में कहा-महाराज की जय हो! बलवंत सिंह ने हँसते हुए कहा-मैं तुम्हारा पिता हूँ। महाराज तो राज्य की जनता के लिये हूँ। राजकुमारी ने रोष में कहा-राजा पूरे राज्य के लिये पिता ही होता है महाराज। बलवंत सिंह समझ गए कि कोई गहरी बात है। उन्होंने शय्या पर बैठते हुए कहा-प्रीति क्या बात है? क्या किसी अनुचर ने धृष्टता की? राजकुमारी ने कहा-इस राज्य में एक ऐसी भी हतभागिनी दुहिता है जिसके पिता के पास उसके लिये अवकाश नहीं। महाराज ने गंभीर स्वर में कहा- ऐसा नहीं है राजकुमारी। चौहान वंश अपने पराभव की ओर अग्रसर है। राजागण अपने आमोद-प्रमोद में व्यस्त हैं। इधर विदेशियों का आक्रमण बढ़ता जा रहा है।मैंने महोबा के राजा अमरपाल सिंह चौहान से मदद माँगी है।इसी कारण व्यस्तता अधिक है इन दिनों। राजकुमारी ने आश्चर्य से कहा-क्या! इन आततायी दस्युओं का इतना दुस्साहस कि गौरवशाली चौहान वंश से युद्ध करें... अरे हाँ पिताजी! आज तो एक दस्यु हमारे अन्त:पुर तक आ गया था। मैंने सैनिकों से उसे कारागार में डलवा दिया। अब बताइए राज्य की ओर से मेरा पुरस्कार क्या है? महाराज ने हँसते हुए कहा-राजकुमारी! तुमने जिसे दस्यु समझ कर कटार मार दिया वो महोबा का राजकुमार विशालदेव सिंह चौहान है। राज्य की प्रतियोगिता का विजेता। वह राजकीय अतिथि है, तुम्हारे चित्रों का अध्ययन करने आया है यहाँ।वह भूलवश सरोवर की ओर चला गया था। और तुम लोगों को आते देखकर पेड़ों में छुप गया था...। राजकुमारी की आँखों में आँसू आ गए-हाय!एक निरपराध कारागार में है मेरे कारण। यह तो अनर्थ हो गया। पिताजी आप मुक्त कर दें उसे। मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। महाराज ने हँसते हुए कहा-कोई बात नहीं। विशालदेव स्वयं समझदार है। उसने बताया कि सब अनजाने में हुआ। और राज्य अतिथि दण्डमुक्त होता है। अत:वह कारागार में नहीं है। उसका उपचार हो रहा है।            सन्ध्या का समय। मन्दिरों में सन्ध्या आरती गूंज रही है। कुल देवी तुलजा भवानी के मंदिर की दीवारों पर लगे चित्रों को दिखाती हुई राजकुमारी ने विशालदेव से कहा-यह हंसों का जोड़ा है। अपने प्रेम की वारिधि में डूबता-उतराता। इनकी दुनिया बस एक दूसरे तक ही सीमित है। राजकुमार ने राजकुमारी के मुख पर गहरी दृष्टि डालते हुए कहा-राजकुमारी! प्रेम और विवाह के बारे में तुम क्या सोचती हो? राजकुमारी के मुख पर एक क्षण को कई भाव आए और गए।उसने कहा-राजकुमार! प्रेम उन्मुक्त है। सभी सीमाओं बन्धनों और तर्कों से परे। विवाह सामाजिक मर्यादा है। एक तरफ अतिशय उन्मुक्तता उच्छृंखल बनाती है तो दूसरी ओर अत्यधिक मर्यादा हमें संकुचित कर देती है इन दोनों में समन्वय प्रेमविवाह ही कर सकता है। अत:दोनों का मेल आवश्यक है प्रेम का भी और विवाह का भी। राजकुमार ने कहा-क्या तुम्हारा हृदय किसी के प्रति अनुरक्त है? अगर मैं तुम्हें प्रेयसी और पत्नी दोनों रुपों में स्वीकार करना चाहूं तो? राजकुमारी की भौहें तनीं-ओह! राजकुमार!तो क्या तुम्हारा यह चित्रकला प्रेम मुझ तक पहुँचने का माध्यम भर था? इतनी योजनायें बनाईं तुमने? राजकुमार ने गंभीर स्वर में कहा-राजकुमारी! योजनायें बना कर प्रेम नहीं व्यापार किया जाता है। यह सच है कि मैं इन चित्रों के कारण ही तुम्हारे प्रति उन्मुख हुआ पर ये हेतु भर हैं। योजना के अंग नहीं। राजकुमारी का मुख कमल अरुण हुआ। उसने कहा-ठीक है। तुम पिताजी से इस विषय में बात करो। उनकी सम्मति ही सर्वमान्य होगी मुझे।              फाल्गुन मास का आरम्भ हो गया है। इसी मास में राजकुमारी प्रीति सिंह चौहान और राजकुमार विशालदेव सिंह चौहान का विवाह संपन्न होगा। राजपुरोहित मंत्रों का अभ्यास कर रहे हैं,चारण गीतों का अभ्यास। सखियाँ टेसू और अमलतास के पुष्पों से विभिन्न रंग तैयार कर रही हैं। कुम्हार बर्तनों की सज्जा में लगे हैं। जौहरी आभूषणों में व्यस्त। सारा राज्य इस इस उत्सव की तैयारी में है। नियत समय पर द्वाराचार हुआ,पुरोहितों ने मंगल मंत्रोच्चार किए। चारणों ने मंगल गान गाए और सूर्योदय की प्रथम वेला में इक्यावन डोलियों के मध्य एक डोली में बैठकर राजकुमारी प्रीति महोबा की रानी बनकर चल दी। साथ में उसकी सेविका और सखी चंपा भी थी। राज्य की सीमा पर पहुँच कर डोलियाँ कुछ देर के लिए रुकीं। चंपा ने इठलाते हुए कहा-राजकुमारी जल ग्रहण करोगी? हाय!अब तो यह प्रश्न करने का अधिकार भी न रहा हमारा। राजकुमारी ने उसके कन्धे पर मारते हुए कहा-तुम बहुत चंचला हो। भला तुम्हारा यह अधिकार भी कोई ले सकता है? चंपा ने कहा-वैसे राजकुमारी आपने अपना प्रेम बड़ी सरलता से पा लिया। याद है उस दिन राजकुमार की सच्चाई पता चलते ही आप कितना रोईं थीं? कहीं न कहीं आप भी राजकुमार को चाहती थीं। है न! राजकुमारी ने शरमाते हुए कहा-चुप कर निर्लज्ज! डोलियों के भी कान होते हैं। फिर दोनों सखियों की मंद हँसी पर कहार भी मुस्कुरा उठे।                महोबा राज्य की सीमा तीन तरफ से चौहानवंशी राज्यों से सटी है।एक तरफ नदी है। इस रास्ते से हमेशा दस्युओं के आक्रमण होते रहते हैं।रानी प्रीति सामान्यतया राज्य के मामलों में प्रवेश नहीं करती थीं। पर उनके मन में एक भय बना रहता है।पिछले कुछ महीनों से देख रही हैं कि राजा विशालदेव राज्य कार्यों का बहाना कर बाहर ही रहते हैं। उनका मन किसी कार्य में नहीं लगता। रानी ने कुछ गुप्तचरों को राजा के कार्यों के निरीक्षण में भी लगाया था। पर वे गुप्तचर भी न जाने कहां चले गए।रानी प्रीति ने व्यग्र भाव से चंपा की गोद में सिर रखते हुए कहा-चंपा! राज्य पर भीषण संकट आने वाला है। मेरा हृदय काँप रहा है। चंपा ने कहा-महारानी! आप निश्चिंत रहें। कुलदेवी का आशीर्वाद हमारे साथ है। तभी प्रतिहारी ने आकर सूचना दी कि गुप्तचर प्रवेश की अनुमति चाहता है। रानी ने आज्ञा दी तो गुप्तचर ने आकर कहा- महारानी की जय हो!पहले मुझे अभयदान मिले तो आगे कहूँ। रानी ने कहा-तुम अभय होकर कहो।हम हर स्थिति के लिये तैयार हैं। गुप्तचर ने कहा -महाराज विशालदेव दस्यु सुन्दरी चन्द्रसेना के रुप जाल पर मोहित हैं।और दस्युओं से एक गुप्त सन्धि करना चाहते हैं जिससे चन्द्रसेना इनकी पत्नी बनेगी और सीमा से सटे चौहान राजाओं के विरुद्ध युद्ध में राजा विशालदेव दस्युओं के साथ रहेंगे...। रानी प्रीति पर जैसे बिजली गिर पड़ी। आँखों के सम्मुख चौहान वंश का पतन और अपनी शय्या पर पटरानी को सोचकर उनका हृदय काँप उठा। उन्होंने गुप्तचर को जाने की आज्ञा दी।               आज रानी प्रीति और विशालदेव के विवाह की दूसरी वर्षगाँठ है। रानी ने विवाह वाले वस्त्र ही पहने हैं। रात्रिभोज पर सभी कुलपुरोहित और आमात्य आमंत्रित थे। रानी ने राजा को शयनकक्ष में चलने का संकेत किया। रात्रि अब एक पहर बीत गई है। रानी की आँखों में नींद न थी। रानी ने राजा से कहा-विशाल देव आप मेरे पति ही नहीं, प्रेमी भी हैं। अगर आपको पता चले कि मेरा हृदय किसी और की कामना करता है तो आप क्या करेंगे? राजा विशालदेव चौंके करवट बदल कर कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा। रानी ने कहा-सीधा प्रश्न तो है। राजा ने कहा- तो....तो....तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा। रानी ने कहा-और आप? राजा ने कहा-मैं खुद भी विषपान कर प्राण दे दूंगा। रानी के मुख पर संतोष की छाया दिखी। उन्होंने राजा का मुख अपने हाथ में ले लिया और कहा-विशाल देव! मैं आपसे बहुत प्रेम करती हूँ। और आपको स्वयं के सिवा कहीं और नहीं देख सकती। मेरे लिए मेरा राज्य और मेरा प्रेम दोनों महत्वपूर्ण है... खैर! हमें इससे क्या? आज मैं अपने हाथों से आपको दूध पिलाऊंगी। और रानी ने सिरहाने रखा दूध का गिलास राजा के होठों से सटा दिया। फिर दूसरा गिलास स्वयं भी पी लिया। कुछ क्षण बाद रानी ने राजा से फिर कहा-विशालदेव आओ इस मिलन के अन्तिम क्षण में मैं तुम्हें निहार लूँ। राजा ने कहा- क्या मतलब? रानी ने कहा- इस दूध में मैंने विष मिलाया था। तुम दस्यु सुन्दरी चन्द्रसेना की ओर आकृष्ट हो। और राज्य के द्रोही भी। तुम्हें जिवित रहने का अधिकार नहीं। राजा ने कहा-और तुम ? रानी ने कहा-मैंने स्वयं भी विषपान किया है। मेरे दूध में भी विष था। राजा और रानी दोनों की आँखों में आँसू हैं। दोनों ने एक दूसरों का मुख हाथों में पकड़ लिया है। राजा ने लड़खड़ाते स्वर में कहा-रानी मुझे माफ करना... रानी ने भी आँसुओं के बीच मुस्कुराने की चेष्टा करते हुए कहा-मुझे भी.... असित कुमार मिश्र बलिया

Saturday 1 August 2015

कहानी

आई लव यू संगीता यादव...

डा०अंजना त्यागी मैम मेरे शहर में स्त्रीरोग विशेषज्ञ हैं। बनारस की हैं। मेरी फेसबुक फ्रेंड भी हैं। आज बहुत दिनों बाद इनके घर आया हूँ। अंजना मैम चाय का कप मुझे देते हुए, बनारसी लहज़े में बोलती हैं-'तो रजा शादी कर ले मुझसे और घर ले चल अपने।' मैं बोलने ही वाला हूँ कि- 'क्या मैम आप भी न!' तब तक बगल वाले कमरे से डा०सौरभ त्यागी सर की आवाज आती है-भाई असित गाड़ी की चाभी मेज़ पर ही है...। बंटी भी कहीं जाने की बात पर दौड़ कर आ गया है-मम्मा मैं भी चलूँगा। हम तीनों खूब हँसते हैं। बहुत प्यार है इस फैमली में। थोड़े बहुत छींटे मुझ तक भी आते रहते हैं।
      तभी कालबेल बजती है। अंजना मैम खीझ उठती हैं। मेरे साथ के समय में कोई पेशेन्ट नहीं देखना चाहती हैं। बेमन से बोलती हैं-कौन है? आ जाओ। एक औरत दो बच्चों के साथ आई है। उम्र से ज्यादा अनुभव और निस्तेज चेहरा उसकी कहानी बयां कर रहे हैं। उसकी थकी सी आवाज़-नमस्ते डाक्टर साहब। अरे!ये आवाज़ तो सुनी सुनी सी लगती है। ध्यान से देखता हूँ उसे। अरे संगीता यादव है ये तो। मेरी जान की दुश्मन। आठवीं में साथ पढ़ती थी। बस दो लोगों से मुझे बहुत डर लगता था। एक गणित के माट्साब से और दूसरा संगीता से। वो मेरे बाल पकड़ कर खींचते थे और ये गाल। न जाने कितनी कोमल छड़ियाँ टूटी होंगी इस वज्र देह पर लेकिन आँसू हर बार इसी की आँख में होते थे। बहुत तेज बोलती थी ये। मेरी रुचि संगीत और अभिनय में होने के कारण कहती थी-'ई असितवा एक दिन अम्ता बच्चन बनेगा'।थोड़ा मौका पाते ही मेरे गाल खूब जोर से खींचती थी। मैंने कई बार माट्साब से शिकायत भी की पर हर बार वो इतनी मासूमियत से कहती थी -"नहीं जी ई झूठ बोल रहा है" और मुझे ही डांट सुनकर बैठना पड़ता था।
      'संगीता तुम मर जाओगी यही हाल रहा तो।प्रोथाम्बिन का लेबल बहुत कम हो रहा है। जाओ ये टेस्ट करा आओ'-अंजना मैम की व्यावसायिक आवाज़ पर चौंक सा जाता हूँ। कितना आसान होता है डाक्टर के लिये किसी आदमी का मर जाना। ओह!कितनी बदल गई है संगीता। मैं तो चाहता ही था कि संगीता मर जाए।क्लास में आलमारी पर एक छोटी सी छुरी रखी रहती थी। एक दिन जैसे ही संगीता पास आई मैंने वो छुरी निकालते हुए कहा-देखो संगीता, जान से मार दूंगा। वो हँसने लगी...छुरी भी छीन ली,खूब जोर से गाल खींचते हुए बोली-'मैं मरने वाली नहीं हूँ बच्चू।'
     सीढ़ियों से उतरती हुई संगीता के पास दौड़कर जाता हूँ।और बोलता हूँ-संगीता पहचाना? आज गाल नहीं खींचोगी?क्या हाल बनाया है यह?कैसी हो कहां रहती हो आजकल....।फिर दस मिनट बातें हुई हैं संगीता से। पता चला कि इन्टर के बाद उसकी शादी हो गई थी। उसके पति की नौकरी आर्मी में लगते ही उसने मेरठ छावनी में नियुक्त एक महिला सिपाही से शादी कर ली।और संगीता तभी से परित्यक्त गांव में पड़ी है।भाई-भौजाई के प्रेम से भी तलाकशुदा। मां-बाप इसी सदमे में गुजर गए।
अचानक संगीता पूछती है-तुम क्या कर रहे हो असित?
'रिसर्च कर रहा हूँ स्त्रीविमर्श पर'-मैं बताता हूँ।
वो मुस्कुरा देती है...मेरा स्त्री विमर्श रो उठता है। मैं उसकी साड़ी पकड़े बच्चे का गाल सहलाते हुए पूछता हूँ-क्या नाम है इसका?
बच्चा खुद बोल उठता है-"सोनू" नाम ह हमार।
ऊफ्फ! सोनू तो मेरा नाम है घर वाला। मतलब जिसे प्रेमी के रुप में न पा सकी उसे पुत्र के रुप में पा लिया! मैं अब दूसरी ओर देख रहा हूँ। वो सीढ़ियाँ उतर कर चली गई।
    मैं अंजना मैम के कमरे में आकर सोफे पर गिर सा जाता हूँ। मैम पूछ रही हैं-अरे तुम गए नहीं!
मैं कहता हूँ-मैम इसकी जान बहुत कीमती है। थोड़ा देख लीजिएगा प्लीज़। और आने को मुड़ता हूँ। तभी मैम की आवाज-अरे हां,असित!तुम बहुत अच्छा लिखते हो। कोई 'प्रेम-कहानी' लिखो न।क्या बोरिंग टाईप लिखते हो।
मैं जेब से कलम निकालता हूँ और उसकी पर्ची पर 'पेशेंट नेम' और 'संगीता यादव' के बीच जो खाली जगह है वहां "आई लव यू" लिख देता हूँ।
दरवाजे से मुड़कर देखता हूँ,अंजना मैम के आँसू उस कागज़ पर गिर कर मेरी अधूरी प्रेमकहानी को पूरा कर रहे थे।
असित कुमार मिश्र
बलिया