सब फोटो स्टेट नहीं होता.... (कहानी)
सिकन्दरपुर कस्बे में डाकबंगला ऐसी जगह है जहाँ हल्दी नमक से लेकर सूई दवाई तक, ताजी सब्जियों से लेकर चाय समोसे तक, फोटो स्टेट से लेकर चूड़ियों तक की दुकानें हैं। सबकी अलग अलग दुकानें, लेकिन सबकी एक ही दुनिया।
एक पैर कब्र में लटकाए और दूसरे पैर से सब्जी की दुकान चलाने वाले लल्लू काका को सबसे ज्यादा परेशान करते हैं बिजेन्दर ठाकुर। तो पान बेचने वाले गनेस जी की मित्रता है संजय चाय वाले से।इधर फोटो खींचने वाले गुड्डू भैया को सनीचर नाम दिया है अरबिन्द डाग्डर ने। वहीं एक नंबर का ही सामान बेचने का दावा करने वाले झुट्ठामल भी हैं।परधानी कोटे से बने चबूतरे पर कुछ 'जोकर' नहले को दहले से, और चिड़ी के इक्के को लाल पान के सत्ते से काटते भी मिल जाएंगे। ये छोटे मोटे लोग हैं जिनकी कहानियां बड़े लोग नहीं लिखते। डाकबंगला कहे जाने वाले इस छोटी सी जगह में कोई एक आदमी घट जाए या बढ़ जाए तो कहानी बन ही जाती है।
यह भी किसी के अचानक बढ़ जाने और घट जाने की कहानी ही है। रोज की तरह ही उस दिन भी कोचिंग से लौटते वक्त मैं डाकबंगले पर रुका था। लल्लू काका अपने सब्जियों की दुकान खोल ही रहे थे कि बिजेन्दर ठाकुर ने उनको देखकर गाना गाया था - 'चलल करऽ ए बबुनी ओढ़नी संभार केऽ',.... अब लल्लू काका कम से कम दो घंटे गाली देंगे। कुछ कहिए मूड तो फ्रेश हो ही जाता है इनकी गालियों से। लेकिन उस दिन बात थोड़ी ज्यादा बढ़ गई थी लल्लू काका सीधे मेरे पास आए और कहा - आज हम बिजेन्दरा पर एफ आई आर कराएंगे कि हमसे छेड़छाड़ करता है, गाली देता है, और जान से मारने की धमकी देता है।आप हमरा अप्लीकेसन लिख दीजिए।
मैंने कहा कि ए काका सीधे बलात्कार का मुकदमा कराइए। फिर बहरा नहीं आ पाएँगे सात साल। बस चार गवाह तैयार कीजिए।
बात जब गवाही की आई तो अरबिन्द डाग्डर संजय और गनेस जी सौ सौ रुपए पर तैयार हो गए। मैं सादा कागज लेने के लिए लक्की पीसीओ में गया। और पीसीओ से बाहर निकल ही रहा था कि चबूतरे पर बैठकर दुकान पर लिखे फोटो स्टेट के बोर्ड को ध्यान से देख रही एक बुढ़िया अचानक मेरे तरफ आई, और मेरा काॅलर पकड़ कर खींचने लगी। मेरे हाथ से कागज गिर गया।बुढ़िया को जब तक लोग पकड़ कर हटाते उसने मुझे खरोंच दिया था। और मेरे शर्ट के दो तीन बटन टूट चुके थे।बुढ़िया चिल्ला रही थी - सब्ब फोटो स्टेट है! सब्ब फोटो स्टेट है!!
यह पहला परिचय था मेरा बुढ़िया से।संजय ने बताया कि यह बुढ़िया पगली है। न जाने कहां से आई है दो तीन दिन से यहीं चबूतरे पर सो रही है।शायद थोड़ा-बहुत बहुत पढ़ना जानती है। कोई बात दिन भर दोहराती रहती है। स्कूल के बच्चे मध्याह्न भोजन में से इसे दे जाते हैं वही खाकर रहती है।कोई सामान भी नहीं है इसके पास। किसी से कुछ बोलती भी नहीं।आज पता नहीं कैसे आप पर इसने हमला कर दिया। मैंने भीड़ में सहमी सिकुडी बुढ़िया को बैठे देखा। कपड़े अस्त व्यस्त।कई दिनों से न नहाने से गंदी हो गई थी। लेकिन अस्फुट स्वर में शायद वही बात दुहरा रही थी कि सब फोटो स्टेट है। मैंने लोगों से भीड़ खत्म करने का आग्रह किया और खुद भी घर आ गया।
मैं इस घटना को न चाहते हुए भी भूल गया था।इसे याद करने की कोई वजह भी तो नहीं थी। हां डाकबंगले पर रुकता नहीं था अब।तीन चार दिनों के बाद मैंने चबूतरे के नीचे बुढ़िया को फिर बैठे देखा। उससे नजरें मिलीं मेरी आंखों में गुस्सा था उसकी आंखों में कुछ नहीं। जैसे जानती ही न हो मुझे। मैंने तुरंत उसकी तरफ से मुंह फेरना चाहा तभी खाकी रंग की स्कूल ड्रेस में आए दो तीन स्कूली बच्चों ने अपनी थाली में लाया हुआ कढ़ी भात उसकी थाली में लापरवाही से डाल दिया और बुढ़िया भी शायद उसी इन्तजार में थी बिल्कुल ही टूट पड़ी खाने पर।
मैंने अगल बगल देखा सब अपने काम में व्यस्त थे।किसी पागल के बारे में सोचने की फुरसत या जरूरत भी तो नहीं होती। मैंने उन बच्चों को थोड़ा आगे जाकर रोका और पूछा कि बुढ़िया तुम लोगों से खाना मांगती है?
बच्चों ने बताया कि नहीं। स्कूल का बचा खाना हम लोग एक दिन घर ले जा रहे थे तो बुढ़िया को रास्ते में बैठे देखा। और थोड़ा सा इसे भी दे दिया। तबसे आदत हो गई है। हम रोज उसे भी अपने भोजन में से उसे दे आते हैं।
मैंने हंस कर पूछा कि कब तक बुढ़िया को खिलाओगे ऐसे?
बड़े लड़के ने छोटे वाले की तरफ इशारा करके कहा - हम त इसी साल पांच पास करके निकल जाएंगे बाकिर ई तीन में है ईहे लाया करेगा।
मैंने छोटे वाले से पूछा कि तुम स्कूल से निकल जाओगे तब कौन खाना लाएगा जी?
छोटा लड़का शायद हिंदी नहीं जानता। उसने कहा कि- हमार छोटकी बहिन एक में बिया। तब ऊहे ले के आई।
मैं स्तब्ध रह गया।चार पांच के ये छोटे-छोटे बच्चे इतने संवेदनशील हैं कि लगभग दस दिनों से बुढ़िया को अपने दम पर जिन्दा रखे हुए हैं। और हम सभ्य समाज वाले लोगों के पास इतना भी समय नहीं कि अपने बने बनाए खोल से बाहर निकल सकें।हमारे आगे पीछे कौन जीता है कौन मरता है हमें क्या मतलब? सच ही तो कहा था उस दिन बुढ़िया ने कि सब फोटो स्टेट है।बहुत झूठी है ये दुनिया....।तभी मेरे मन में एक नया सवाल आया कि रविवार को जब स्कूल बंद रहता है तब कौन लड़का खाना लाता होगा? उस दिन तो बुढ़िया भूखी ही रहती होगी न! मैं फिर से बुढ़िया को देखा अब वो बची हुई कढ़ी पी रही थी। मेरे अन्दर कुछ पिघला। और पानी भरी आंखों से मैंने देखा। उन स्कूली बच्चों की पीठ अब भी दिख रही थी।
मैंने पीसीओ वाले गुड्डू भैया ऊर्फ सनीचर महाराज से कहा कि अपने बगल में यह खंडहर जैसा कमरा बुढ़िया को रहने के लिए दे दीजिए।
उनके साफ साफ मना करने पर मैंने धर्म-कर्म, पाप-पुण्य का सहारा लेकर कहा कि दो महीने बाद अगर ठंड से बुढ़िया यहीं मर गई तो अगला भूकम्प यहीं आएगा। आप अपनी यह 'हवेली' अपने पास रखे रखिए।
सनीचर महाराज तैयार हो गए। फिर मैंने संजय चाय वाले से कहा कि इस बुढ़िया को रविवार के दिन खाना खिलाने से तुम्हारी दुकान खूब चलेगी।फिर उसके लिए एक पुरानी दरी और कंबल की भी व्यवस्था की गई।
लगाव साहचर्य जनित भी होता है।साथ रहते रहते कुत्ते बिल्लियों गाय भैसों से भी लगाव हो जाता है तो यह आखिर मानुस ही थी ।महीना बीतते बीतते बुढ़िया के साथ भी यही हुआ। वह अब डाकबंगले का ही एक हिस्सा हो गई थी। सनीचर महाराज अब पाप पुण्य के दायरे से ऊपर उठ चुके थे। दुकान खोल कर जब झाड़ू उठाते तो बुढ़िया का कमरा भी साफ कर आते। संजय रविवार को खाना तो खिलाते ही थे, रोज सुबह की पहली चाय भी बुढ़िया को दे आते। लल्लू काका के सूखे होठों पर हंसी आ जाती थी जब बिजेन्दर बुढ़िया का सहारा लेकर छेड़छाड़ करते थे। शायद काका के नीरस जीवन में भी सरसता आ रही थी। हम सबकी जिन्दगी में शामिल थी अब बुढ़िया। गश्ती टीम के सिपाही मुकेश और धीरज यादव रात को एक नजर बुढ़िया को देखकर ही आगे बढ़ते थे। मुझे भी संजय की दुकान पर चाय का गिलास होंठ से लगाते ही बुढ़िया की याद आती और मैं पूछ बैठता कि बुढ़िया ने चाय पी?
संजय मुस्कुरा के कहते हां माट्साहब आधा घंटे पहले ही रजुवा चाय ले गया था।मैं देख रहा था कि बुढ़िया में भी बदलाव आ रहा था धीरे-धीरे। अब वो नहाने भी लगी थी। और चिल्लाती भी नहीं थी।हां इसी बीच अरबिन्द डाग्डर को दांत काटने का प्रयास किया था।
दिसम्बर का महीना चल रहा है। ठंड भी पड़ने लगी है अब।तीन तारीख को बिहार में "भोजपुरिया स्वाभिमान सम्मेलन" होता है। मैं कल वहीं से आ रहा था।नदी पार करते ही टिटिहरी के बोलने की आवाज सुनाई दी थी । ये हरामजादी जब भी बोलती है तो कुछ ना कुछ अशुभ जरुर होता है। पहले ही तय कर लिया था कि डाकबंगले पर नहीं रुकना है। लेकिन चबूतरे के आसपास इक्ट्ठा हुई भीड़ से समझ गया कि बुढ़िया आज फिर किसी से उलझ गई होगी।मैंने तय कर लिया कि आज बुढ़िया को डाटूंगा। भीड़ हटाकर जब बुढ़िया के पास पहुंचा तो डांटने की जरुरत खत्म हो चुकी थी। उसे लोगों ने चबूतरे पर ही लिटाया था।अरबिन्द डाग्डर ने बुढ़िया की लाश देखकर बताया कि हार्ट अटैक से मरी है। धीरज सिपाही कह रहे थे कि भोर में चार बजे मैं गश्त से लौट रहा था। रोज की तरह बुढ़िया को आवाज लगाई। फिर कमरे में जाकर देखा तो बुढ़िया मरी पड़ी थी...।
बहुत रोकने पर भी आंसुओं की कुछ बूंदों ने मेरा कहना नहीं माना। बुढ़िया मेरी कोई नहीं थी। मेरी ही क्या, यहां जुटी भीड़ में से किसी की भी कुछ नहीं थी।मैंने संजय चायवाले की रोती हुई आँखें देखीं। अरबिन्द डाग्डर को इस उम्मीद से आला सटाते देखा कि शायद उसके बेजान शरीर में सांसों का एक भी कतरा बचा हो।रोते हुए बिजेन्दर ठाकुर को चुप कराते हुए लल्लू काका को देखा। और गुड्डू भैया ऊर्फ सनीचर महाराज को भी आंसू बहाते देखा।बुढ़िया का जल प्रवाह करने के लिए लोग जुटते जा रहे हैं। सब बुढ़िया के इस आखिरी यात्रा के सहभागी बनना चाहते हैं... और मैं.... मैं.... मन तो कर रहा है कि बुढ़िया को झकझोर कर उठाऊं और कहूँ कि देख बुढ़िया इस भीड़ को... सबके रोते हुए चेहरों को... और बंद पड़ी डाकबंगले की इन सभी दुकानों को।देख बुढ़िया देख! सब फोटो स्टेट ही नहीं होता। सब फोटो स्टेट नहीं होता...
असित कुमार मिश्र
बलिया